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"type": "श्लोक",
"content": "केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं\n\nशोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।\n\nपाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं\n\nनौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्।।1।।\n\nकोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।\n\nजानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसड्गिनौ।।2।।\n\nकुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।\n\nकारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम्।।3।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
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"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।\n\nजहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग।।\n\nसगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।\n\nप्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर।।\n\nकौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ।\n\nआयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ।।\n\nभरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।\n\nजानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा।।\n\nकारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।\n\nअहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।\n\nकपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।\n\nजौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी।।\n\nजन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।।\n\nमोरि जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई।।\n\nबीतें अवधि रहहि जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।\n\nबिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत।।1(क)।।\n\nबैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।\n\nराम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात।।1(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ।।\n\nमन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी।।\n\nजासु बिरहँ सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती।।\n\nरघुकुल तिलक सुजन सुखदाता। आयउ कुसल देव मुनि त्राता।।\n\nरिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत।।\n\nसुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा।।\n\nको तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए।।\n\nमारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना।।\n\nदीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर।।\n\nमिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता। नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता।।\n\nकपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते।।\n\nबार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता।।\n\nएहि संदेस सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं।।\n\nनाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।।\n\nतब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा।।\n\nकहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "छंद",
"content": "निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर् यो।\n\nसुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर् यो।।\n\nरघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।\n\nकाहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।\n\nपुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात।।2(क)।।\n\nभरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।\n\nकही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि।।2(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए।।\n\nपुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई।।\n\nसुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई।।\n\nसमाचार पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए।।\n\nदधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला।।\n\nभरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी।।\n\nजे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं।।\n\nएक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई।।\n\nअवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी।।\n\nबहइ सुहावन त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत।\n\nचले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत।।3(क)।।\n\nबहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।\n\nदेखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान।।3(ख)।।\n\nराका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान।\n\nबढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान।।3(ग)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर।।\n\nसुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा।।\n\nजद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना।।\n\nअवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।।\n\nजन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।।\n\nजा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा।।\n\nअति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी।।\n\nहरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।\n\nनगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान।।4(क)।।\n\nउतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।\n\nप्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु।।4(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा।।\n\nबामदेव बसिष्ठ मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक।।\n\nधाइ धरे गुर चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह।।\n\nभेंटि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया।।\n\nसकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा।।\n\nगहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज।।\n\nपरे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए।।\n\nस्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "छंद",
"content": "राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।\n\nअति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी।।\n\nप्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।\n\nजनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही।।1।।\n\nबूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई।\n\nसुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई।।\n\nअब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।\n\nबूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो।।2।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।\n\nलछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ।।5।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे।।\n\nसीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा।।\n\nप्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी।।\n\nप्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी।।\n\nअमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला।।\n\nकृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी।।\n\nछन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना।।\n\nएहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा।।\n\nकौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "छंद",
"content": "जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।\n\nदिन अंत पुर रुख स्त्रवत थन हुंकार करि धावत भई।।\n\nअति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।\n\nगइ बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।\n\nरामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि।।6(क)।।\n\nलछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।\n\nकैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ।।6।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सासुन्ह सबनि मिली बैदेही। चरनन्हि लागि हरषु अति तेही।।\n\nदेहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता।।\n\nसब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं।।\n\nकनक थार आरति उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं।।\n\nनाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं।।\n\nकौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि।।\n\nहृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा।।\n\nअति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।\n\nपरमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु।।7।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला।।\n\nहनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा।।\n\nभरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा।।\n\nदेखि नगरबासिन्ह कै रीती। सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती।।\n\nपुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए।।\n\nगुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे।।\n\nए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे।।\n\nमम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।\n\nसुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ।।\n\nआसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ।।8(क)।।\n\nसुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।\n\nचढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद।।8(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "कंचन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे।।\n\nबंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू।।\n\nबीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराई।।\n\nनाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे।।\n\nजहँ तहँ नारि निछावर करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं।।\n\nकंचन थार आरती नाना। जुबती सजें करहिं सुभ गाना।।\n\nकरहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।।\n\nपुर सोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना।।\n\nतेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।\n\nअस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस।।9(क)।।\n\nहोहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान।\n\nपुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान।।9(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "प्रभु जानी कैकेई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी।।\n\nताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा।।\n\nकृपासिंधु जब मंदिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए।।\n\nगुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई।।\n\nसब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन।।\n\nमुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए।।\n\nकहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका।।\n\nअब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे। महाराज कहँ तिलक करीजै।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।\n\nरथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ।।10(क)।।\n\nजहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ।\n\nहरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ।।10(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई।।\n\nराम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई।।\n\nसुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए।।\n\nपुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे।।\n\nअन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई।।\n\nभरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई।।\n\nपुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए।।\n\nकरि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।\n\nदिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ।।11(क)।।\n\nराम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि।\n\nदेखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि।।11(ख)।।\n\nसुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद।\n\nचढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद।।11(ग)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा।।\n\nरबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई।।\n\nजनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई।।\n\nबेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे।।\n\nप्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।\n\nसुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी।।\n\nबिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे।।\n\nसिंघासन पर त्रिभुअन साई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "छंद",
"content": "नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।\n\nनाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं।।\n\nभरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।\n\nगहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते।।1।।\n\nश्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई।\n\nनव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई।।\n\nमुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।\n\nअंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे।।2।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस।\n\nबरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस।।12(क)।।\n\nभिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।\n\nबंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम।। 12(ख)।।\n\nप्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।\n\nलखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान।।12(ग)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "छंद",
"content": "जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने।\n\nदसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने।।\n\nअवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।\n\nजय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे।।1।।\n\nतव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।\n\nभव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे।।\n\nजे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।\n\nभव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे।।2।।\n\nजे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।\n\nते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी।।\n\nबिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।\n\nजपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे।।3।।\n\nजे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।\n\nनख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी।।\n\nध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।\n\nपद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे।।4।।\n\nअब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।\n\nषट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने।।\n\nफल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।\n\nपल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे।।5।।\n\nजे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।\n\nते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं।।\n\nकरुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।\n\nमन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं।।6।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।\n\nअंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार।।13(क)।।\n\nबैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।\n\nबिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर।।13(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "छंद",
"content": "जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं।।\n\nअवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।\n\nदससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।\n\nरजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।\n\nमहि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।\n\nमद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।\n\nमनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए।।\n\nहति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।\n\nबहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए।।\n\nभव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।\n\nअति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं।।\n\nअवलंब भवंत कथा जिन्ह के।। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें।।6।।\n\nनहिं राग न लोभ न मान मदा।।तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा।।\n\nएहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा।।7।।\n\nकरि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ।।\n\nसम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही।।8।।\n\nमुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे।।\n\nतव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी।।9।।\n\nगुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।।\n\nरघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं।।10।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।\n\nपद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14(क)।।\n\nबरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।\n\nतब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास।।14(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी।।\n\nमहाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका।।\n\nजे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं।।\n\nसुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं।।\n\nसुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।\n\nखगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी।।\n\nबिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुंदर तरनी।।\n\nनित नव मंगल कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी।।\n\nनित नइ प्रीति राम पद पंकज। सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज।।\n\nमंगन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।\n\nजात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति।।15।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माही।।\n\nतब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए।।\n\nपरम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे।।\n\nतुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई।।\n\nताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे।।\n\nअनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही।।\n\nसब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना।।\n\nसब के प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।\n\nसदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम।।16।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए।।\n\nएकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे।।\n\nपरम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा।।\n\nप्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं।।\n\nतब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रंग अनूप सुहाए।।\n\nसुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए।।\n\nप्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए।।\n\nअंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।\n\nहियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ।।17(क)।।\n\nतब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।\n\nअति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि।।17(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो।।\n\nमरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली।।\n\nअसरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी।।\n\nमोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता।।\n\nतुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।\n\nबालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना।।\n\nनीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ।।\n\nअस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।\n\nप्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव।।18(क)।।\n\nनिज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।\n\nबिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ।।18(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "भरत अनुज सौमित्र समेता। पठवन चले भगत कृत चेता।।\n\nअंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा।।\n\nबार बार कर दंड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा।।\n\nराम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी।।\n\nप्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी।।\n\nअति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए।।\n\nतब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना।।\n\nदिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा।।\n\nपुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा।।\n\nअस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।\n\nबार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि।।19(क)।।\n\nअस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत।\n\nतासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत।।!9(ख)।।\n\nकुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।\n\nचित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि।।19(ग)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा।।\n\nजाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू।।\n\nतुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता।।\n\nबचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी।।\n\nचरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा।।\n\nरघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी।।\n\nराम राज बैंठें त्रेलोका। हरषित भए गए सब सोका।।\n\nबयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग।\n\nचलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।।20।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।\n\nसब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।\n\nचारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं।।\n\nराम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी।।\n\nअल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।\n\nनहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।\n\nसब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।।\n\nसब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं।।\n\nकाल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं।।21।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला।।\n\nभुअन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू।।\n\nसो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी।।\n\nसोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी। फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी।।\n\nसोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला।।\n\nराम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा।।\n\nसब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी।।\n\nएकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।\n\nजीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज।।22।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहि एक सँग गज पंचानन।।\n\nखग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।\n\nकूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।।\n\nसीतल सुरभि पवन बह मंदा। गूंजत अलि लै चलि मकरंदा।।\n\nलता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं।।\n\nससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी।।\n\nप्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी।।\n\nसरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।\n\nसागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।।\n\nसरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।\n\nमागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज।।23।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे।।\n\nश्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर।।\n\nपति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील बिनीता।।\n\nजानति कृपासिंधु प्रभुताई। सेवति चरन कमल मन लाई।।\n\nजद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी।।\n\nनिज कर गृह परिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई।।\n\nजेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ। सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ।।\n\nकौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं।।\n\nउमा रमा ब्रह्मादि बंदिता। जगदंबा संततमनिंदिता।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ।\n\nराम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ।।24।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सेवहिं सानकूल सब भाई। राम चरन रति अति अधिकाई।।\n\nप्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं।।\n\nराम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती।।\n\nहरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा।।\n\nअहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं। श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं।।\n\nदुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए।।\n\nदोउ बिजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर।।\n\nदुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।\n\nसोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार।।25।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "प्रातकाल सरऊ करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन।।\n\nबेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं।।\n\nअनुजन्ह संजुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं।।\n\nभरत सत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई।।\n\nबूझहिं बैठि राम गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा।।\n\nसुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं।।\n\nसब कें गृह गृह होहिं पुराना। रामचरित पावन बिधि नाना।।\n\nनर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।\n\nसहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज।।26।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "नारदादि सनकादि मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा।।\n\nदिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं।।\n\nजातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं।।\n\nपुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर।।\n\nनव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई।।\n\nमहि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा।।\n\nधवल धाम ऊपर नभ चुंबत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत।।\n\nबहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "छंद",
"content": "मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।\n\nमनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची।।\n\nसुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।\n\nप्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।\n\nराम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ।।27।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सुमन बाटिका सबहिं लगाई। बिबिध भाँति करि जतन बनाई।।\n\nलता ललित बहु जाति सुहाई। फूलहिं सदा बंसत कि नाई।।\n\nगुंजत मधुकर मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर।।\n\nनाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए।।\n\nमोर हंस सारस पारावत। भवननि पर सोभा अति पावत।।\n\nजहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं।।\n\nसुक सारिका पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक।।\n\nराज दुआर सकल बिधि चारू। बीथीं चौहट रूचिर बजारू।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "छंद",
"content": "बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।\n\nजहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए।।\n\nबैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।\n\nसब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।\n\nबाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर।।28।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।।\n\nपनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना।।\n\nराजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर।।\n\nतीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर।।\n\nकहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी।।\n\nतीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।\n\nपुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई।।\n\nदेखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "छंद",
"content": "बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।\n\nसोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं।।\n\nबहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।\n\nआराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।\n\nअनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।29।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं।।\n\nभजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि।।\n\nजलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि।।\n\nधृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि।।\n\nकाल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि।।\n\nलोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि।।\n\nसंसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि।।\n\nजनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि।।\n\nबहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि।।\n\nमुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।\n\nसानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान।।30।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।\n\nपूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका।।\n\nजिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी।।\n\nअघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने।।\n\nबिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ।।\n\nमत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा।।\n\nधरम तड़ाग ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना।।\n\nसुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।\n\nपछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास।।31।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा।।\n\nसुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए।।\n\nजानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए।।\n\nब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना।।\n\nरूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा।।\n\nआसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं।।\n\nतहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी।।\n\nराम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।\n\nस्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह।।32।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई।।\n\nमुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी।।\n\nस्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन।।\n\nएकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं।।\n\nतिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा।।\n\nकर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे।।\n\nआजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा।।\n\nबड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।\n\nकहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ।।33।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी।।\n\nजय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय।।\n\nजय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर।।\n\nजय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर।।\n\nग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद।।\n\nतग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन।।\n\nसर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय।।\n\nद्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।\n\nप्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम।।34।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि।।\n\nप्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु।।\n\nभव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक।।\n\nमन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय।।\n\nआस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक।।\n\nभूप मौलि मन मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी।।\n\nमुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर।।\n\nरघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक।।\n\nतारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।\n\nब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ।।35।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए।।\n\nपूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं।।\n\nसुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी।।\n\nअंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना।।\n\nजोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता।।\n\nनाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं।।\n\nतुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ।।\n\nसुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।\n\nकेवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह।।36।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई।।\n\nसंतन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई।।\n\nश्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई।।\n\nसुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन।।\n\nसंत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई।।\n\nसंतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।\n\nसंत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।\n\nकाटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।\n\nअनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड।।37।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।।\n\nसम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी।।\n\nकोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया।।\n\nसबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी।।\n\nबिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन।।\n\nसीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री।।\n\nए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर।।\n\nसम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।\n\nते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज।।38।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ।।\n\nतिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कलपहि घालइ हरहाई।।\n\nखलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी।।\n\nजहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई।।\n\nकाम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन।।\n\nबयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों।।\n\nझूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।।\n\nबोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।\n\nते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद।।39।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न।।\n\nकाहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।।\n\nजब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती।।\n\nस्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी।।\n\nमातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं।।\n\nकरहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा।।\n\nअवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी।।\n\nबिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेता नाहिं।\n\nद्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं।।40।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।\n\nनिर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।\n\nनर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा।।\n\nकरहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना।।\n\nकालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता।।\n\nअस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने।।\n\nत्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक।।\n\nसंत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।\n\nगुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।।41।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई।।\n\nकरहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा।।\n\nपुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए।।\n\nबार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं।।\n\nनित नव चरन देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं।।\n\nसुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं।।\n\nसनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं।।\n\nसुनि गुन गान समाधि बिसारी।। सादर सुनहिं परम अधिकारी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।\n\nजे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान।।42।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "एक बार रघुनाथ बोलाए। गुर द्विज पुरबासी सब आए।।\n\nबैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन।।\n\nसनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी।।\n\nनहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।\n\nसोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई।।\n\nजौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौं मोहि बरजहु भय बिसराई।।\n\nबड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।।\n\nसाधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।\n\nकालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ।।43।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।।\n\nनर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं।।\n\nताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई।।\n\nआकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी।।\n\nफिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।\n\nकबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।\n\nनर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।\n\nकरनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।\n\nसो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।।44।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू।।\n\nसुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।\n\nग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका।।\n\nकरत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ।।\n\nभक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।।\n\nपुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता।।\n\nपुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा।।\n\nसानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।\n\nसंकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।45।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा।।\n\nसरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।\n\nमोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा।।\n\nबहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई।।\n\nबैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा।।\n\nअनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी।।\n\nप्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा।।\n\nभगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।\n\nता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह।।46।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपाधाम के।।\n\nजननि जनक गुर बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे।।\n\nतनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी।।\n\nअसि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ।।\n\nहेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।\n\nस्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं।।\n\nसबके बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने।।\n\nनिज निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "-उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।\n\nब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप।।47।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए।।\n\nअति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा।।\n\nराम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी।।\n\nदेखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा।।\n\nमहिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना।।\n\nउपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा।।\n\nजब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही।।\n\nपरमातमा ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "-तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।\n\nजा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन।।48।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा।।\n\nग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।।\n\nआगम निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका।।\n\nतब पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर।।\n\nछूटइ मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ।।\n\nप्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।।\n\nसोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित।।\n\nदच्छ सकल लच्छन जुत सोई। जाकें पद सरोज रति होई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।\n\nजन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु।।49।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिंधु के मन अति भाए।।\n\nहनूमान भरतादिक भ्राता। संग लिए सेवक सुखदाता।।\n\nपुनि कृपाल पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए।।\n\nदेखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे।।\n\nहरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई।।\n\nभरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई।।\n\nमारुतसुत तब मारूत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई।।\n\nहनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी।।\n\nगिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन।\n\nगावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन।।50।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन।।\n\nनील तामरस स्याम काम अरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि।।\n\nजातुधान बरूथ बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन।।\n\nभूसुर ससि नव बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक।।\n\nभुज बल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित।।\n\nरावनारि सुखरूप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर।।\n\nसुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम।।\n\nकारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुसल कोसला मंडन।।\n\nकलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसीदास प्रभु पाहि प्रनत जन।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम।\n\nसोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम।।51।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा।।\n\nराम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा।।\n\nराम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी।।\n\nजल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं।।\n\nबिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी।।\n\nउमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई।।\n\nकछुक राम गुन कहेउँ बखानी। अब का कहौं सो कहहु भवानी।।\n\nसुनि सुभ कथा उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी।।\n\nधन्य धन्य मैं धन्य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव भय हारी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह।\n\nजानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह।।52(क)।।\n\nनाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर।\n\nश्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर।।52(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं।।\n\nजीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ।।\n\nभव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा।।\n\nबिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा।।\n\nश्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं।।\n\nते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती।।\n\nहरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा।।\n\nतुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह।\n\nबायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह।।53।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी।।\n\nधर्मसील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई।।\n\nकोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई।।\n\nग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ।।\n\nतिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी।।\n\nधर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी।।\n\nसब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया।।\n\nसो हरिभगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।\n\nनाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर।।54।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ पावा।।\n\nतुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी।।\n\nगरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।।\n\nतेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई।।\n\nकहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा।।\n\nगौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई।।\n\nधन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी।।\n\nसुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा।।\n\nउपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्ह काग सन जाइ।\n\nसो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ।।55।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि। सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि।।\n\nप्रथम दच्छ गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा।।\n\nदच्छ जग्य तब भा अपमाना। तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना।।\n\nमम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा। जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा।।\n\nतब अति सोच भयउ मन मोरें। दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें।।\n\nसुंदर बन गिरि सरित तड़ागा। कौतुक देखत फिरउँ बेरागा।।\n\nगिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुन्दर भूरी।।\n\nतासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए।।\n\nतिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला।।\n\nसैलोपरि सर सुंदर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "-सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग।\n\nकूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग।।56।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई।।\n\nमाया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका।।\n\nरहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं।।\n\nतहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा।।\n\nपीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई।।\n\nआँब छाहँ कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा।।\n\nबर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा।।\n\nराम चरित बिचीत्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना।।\n\nसुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला।।\n\nजब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिसेषा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।\n\nसादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास।।57।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा।।\n\nअब सो कथा सुनहु जेही हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू।।\n\nजब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा।।\n\nइंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो।।\n\nबंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा।।\n\nप्रभु बंधन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती।।\n\nब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा।।\n\nसो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "-भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।\n\nखर्च निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम।।58।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा।।\n\nखेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई।।\n\nब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं।।\n\nसुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया।।\n\nजो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई। बरिआई बिमोह मन करई।।\n\nजेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही।।\n\nमहामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें।।\n\nचतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान।\n\nहरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान।।59।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ।।\n\nसुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा।।\n\nमन महुँ करइ बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता।।\n\nहरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा।।\n\nअग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा।।\n\nतब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई।।\n\nबैनतेय संकर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू।।\n\nतहँ होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास।\n\nजात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास।।60।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा।।\n\nसुनि ता करि बिनती मृदु बानी। परेम सहित मैं कहेउँ भवानी।।\n\nमिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही।।\n\nतबहि होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा।।\n\nसुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई।।\n\nजेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना।।\n\nनित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई।।\n\nजाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।\n\nमोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।।61।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।।\n\nउत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला।।\n\nराम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना।।\n\nराम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर।।\n\nजाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी।।\n\nमैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई।।\n\nताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा।।\n\nहोइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना।।\n\nकछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा।।\n\nप्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।\n\nताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान।।62(क)।।\n\nसिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन।\n\nअस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान।।62(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा।।\n\nदेखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयऊ।।\n\nकरि तड़ाग मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदयँ हरषाना।।\n\nबृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए।।\n\nकथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा।।\n\nआवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा।।\n\nअति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा।।\n\nकरि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज।\n\nआयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज।।63(क)।।\n\nसदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस।\n\nजेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस।।63(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।\n\nदेखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।\n\nअब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि।।\n\nसादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही।।\n\nसुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता।।\n\nभयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा।।\n\nप्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी।।\n\nपुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा।।\n\nप्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह।\n\nरिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह।।64।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा।।\n\nपुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा।।\n\nबिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा।।\n\nबालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना।।\n\nसचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना।।\n\nकरि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी।।\n\nपुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए।।\n\nभरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग।।\n\nबरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग।।65।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई।।\n\nपुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा।।\n\nपुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा।।\n\nखर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना।।\n\nदसकंधर मारीच बतकहीं। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही।।\n\nपुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना।।\n\nपुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही।।\n\nबहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।\n\nपुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग।।66((क)।।\n\nकपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास।\n\nबरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास।।66(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिसि धाए।।\n\nबिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती।।\n\nसुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा।।\n\nलंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा।।\n\nबन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी।।\n\nआए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही कि कुसल सुनाई।।\n\nसेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा।।\n\nमिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार।\n\nगयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार।।67(क)।।\n\nनिसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार।\n\nकुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार।।67(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना।।\n\nरावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषण देव असोका।।\n\nसीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी।।\n\nपुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता।।\n\nजेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए।।\n\nकहेसि बहोरि राम अभिषैका। पुर बरनत नृपनीति अनेका।।\n\nकथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी।।\n\nसुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।\n\nभयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक।।68(क)।।\n\nमोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि।\n\nचिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन। 68(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी।।\n\nसोइ भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना।।\n\nजो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई।।\n\nजौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही।।\n\nसुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई।।\n\nनिगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा।।\n\nसंत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही।।\n\nराम कृपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग।\n\nपुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग।।69(क)।।\n\nश्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।\n\nपाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास।।69(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "बोलेउ काकभसुंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी।।\n\nसब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे।।\n\nतुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया।।\n\nपठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही।।\n\nतुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं।।\n\nनारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी।।\n\nमोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।\n\nतृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।\n\nकेहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार।।70(क)।।\n\nश्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।\n\nमृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि।।70(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही।।\n\nजोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा।।\n\nमच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा।।\n\nचिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया।।\n\nकीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा।।\n\nसुत बित लोक ईषना तीनी। केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी।।\n\nयह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा।।\n\nसिव चतुरानन जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।।\n\nसेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड।।71(क)।।\n\nसो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।\n\nछूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि।।71(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा।।\n\nसोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।\n\nसोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूपो बल धामा।।\n\nब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता। अखिल अमोघसक्ति भगवंता।।\n\nअगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता।।\n\nनिर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा।।\n\nप्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी।।\n\nइहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।\n\nकिए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप।।72(क)।।\n\nजथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।\n\nसोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ।।72(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "असि रघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी।।\n\nजे मति मलिन बिषयबस कामी। प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी।।\n\nनयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई।।\n\nजब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा। सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा।।\n\nनौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोह बस आपुहि लेखा।।\n\nबालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी।।\n\nहरि बिषइक अस मोह बिहंगा। सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा।।\n\nमायाबस मतिमंद अभागी। हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी।।\n\nते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।\n\nते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप।।73(क)।।\n\nनिर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ।\n\nसुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ।।73(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई।।\n\nजेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही।।\n\nराम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता।।\n\nताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ।।\n\nसुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ।।\n\nसंसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना।।\n\nताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी।।\n\nजिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई। मातु चिराव कठिन की नाईं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर।\n\nब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर।।74(क)।।\n\nतिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि।\n\nतुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि।।74(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई।।\n\nजब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं।।\n\nतब तब अवधपुरी मैं ज़ाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ।।\n\nजन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई।।\n\nइष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा।।\n\nनिज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी।।\n\nलघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहुरंगा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ।\n\nजूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ।।75(क)।।\n\nएक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।\n\nसुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर।।75(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "कहइ भसुंड सुनहु खगनायक। रामचरित सेवक सुखदायक।।\n\nनृपमंदिर सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती।।\n\nबरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई।।\n\nबालबिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई।।\n\nमरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा।।\n\nनव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना।।\n\nललित अंक कुलिसादिक चारी। नूपुर चारू मधुर रवकारी।।\n\nचारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिन कल मुखर सुहाई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर।\n\nउर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर।।76।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर।।\n\nकंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा।।\n\nकलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे।।\n\nललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा।।\n\nनील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन।।\n\nबिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए।।\n\nपीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही।।\n\nरूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी।।\n\nमोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा।।\n\nकिलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।\n\nजाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं।।77(क)।।\n\nप्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।\n\nकवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह।।77(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया।।\n\nसो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं।।\n\nनाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना।।\n\nग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर।।\n\nजौं सब कें रह ग्यान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस।।\n\nमाया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी।।\n\nपरबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।\n\nमुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।\n\nग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान।।78(क)।।\n\nराकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ।।\n\nसकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ।।78(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा।।\n\nहरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या।।\n\nताते नास न होइ दास कर। भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर।।\n\nभ्रम ते चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा।।\n\nतेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ।।\n\nजानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना।।\n\nतब मैं भागि चलेउँ उरगामी। राम गहन कहँ भुजा पसारी।।\n\nजिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात।\n\nजुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात।।79(क)।।\n\nसप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि।\n\nगयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि।।79(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ।।\n\nमोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं।।\n\nउदर माझ सुनु अंडज राया। देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया।।\n\nअति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका।।\n\nकोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा।।\n\nअगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला।।\n\nसागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा।।\n\nसुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।\n\nसो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ।।80(क)।।\n\nएक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक।\n\nएहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक।।80(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता।।\n\nनर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला।।\n\nदेव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती।।\n\nमहि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना।।\n\nअंडकोस प्रति प्रति निज रुपा। देखेउँ जिनस अनेक अनूपा।।\n\nअवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी।।\n\nदसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता।।\n\nप्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान।\n\nअगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन।।81(क)।।\n\nसोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर।\n\nभुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर।।81(ख)",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका।।\n\nफिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ।।\n\nनिज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ।।\n\nदेखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई।।\n\nराम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना।।\n\nतहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना।।\n\nकरउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी।।\n\nउभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर।\n\nबिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर।।82(क)।।\n\nसोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम।\n\nकोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम।।82(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई।।\n\nधरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता।।\n\nप्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी।।\n\nकर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ।।\n\nकीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा।।\n\nप्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी।।\n\nभगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी।।\n\nसजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।\n\nबचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास।।83(क)।।\n\nकाकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।\n\nअनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि।।83(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना।।\n\nआजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं।।\n\nसुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेऊँ।।\n\nप्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही।।\n\nभगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे।।\n\nभजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा।।\n\nजौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू।।\n\nमन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव।\n\nजेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव।।84(क)।।\n\nभगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम।\n\nसोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।84(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक।।\n\nसुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना।।\n\nसब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी।।\n\nजो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं।।\n\nरीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई।।\n\nसुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें।।\n\nभगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा।।\n\nजानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।\n\nजानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि।।85(क)।।\n\nमोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग।\n\nकायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग।।85(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी।।\n\nनिज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही।।\n\nमम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा।।\n\nसब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।\n\nतिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी।।\n\nतिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी।।\n\nतिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा।।\n\nपुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं।।\n\nभगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई।।\n\nभगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग।\n\nश्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग।।86।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा।।\n\nकोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता।।\n\nकोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई।।\n\nकोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा।।\n\nसो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना।।\n\nएहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते।।\n\nअखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया।।\n\nतिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरू काया।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।\n\nसर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ।।87(क)।।\n\nसत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय।\n\nअस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब।।87(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही।।\n\nप्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ।।\n\nसो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना।।\n\nप्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना।।\n\nबहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई।।\n\nसजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा।।\n\nदेखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई।।\n\nगोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।\n\nअवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन।।88(क)।।\n\nसोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।\n\nते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति।।88(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला।।\n\nराम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ।।\n\nतब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया।।\n\nयह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा।।\n\nनिज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा।।\n\nराम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई।।\n\nजानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।।\n\nप्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।\n\nगावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु।।89(क)।।\n\nकोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु।\n\nचलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ।।89(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं।।\n\nराम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा।।\n\nबिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ।।\n\nश्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई।।\n\nबिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा।।\n\nसील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई।।\n\nनिज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा।।\n\nकवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।\n\nराम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु।।90(क)।।\n\nअस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।\n\nभजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद।।90(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई।।\n\nकहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी।।\n\nमहिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा।।\n\nनिज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं।।\n\nतुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता।।\n\nतिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा।।\n\nरामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन।।\n\nसक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।\n\nससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास।।91(क)।।\n\nकाल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत।\n\nधूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत।।91(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला।।\n\nतीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन।।\n\nहिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा।।\n\nकामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना।।\n\nसारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।।\n\nबिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता।।\n\nधनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना।।\n\nभार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "छंद",
"content": "निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।\n\nजिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै।।\n\nएहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं।\n\nप्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।\n\nसंतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ।।92(क)।।\n\nभाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।\n\nतजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन।।92(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए।।\n\nनयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना।।\n\nपाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना।।\n\nपुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा।।\n\nगुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।\n\nसंसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता।।\n\nतव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक।।\n\nतव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि।\n\nबचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि।।93(क)।।\n\nप्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।\n\nकृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि।।93(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा।।\n\nग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा।।\n\nकारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई।।\n\nराम चरित सर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी।।\n\nनाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं।।\n\nमुधा बचन नहिं ईस्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई।।\n\nअग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा।।\n\nअंड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन।\n\nमोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल।।94(क)।।\n\nप्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग।\n\nकारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग।।94(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "चौपाई",
"content": "गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा।।\n\nधन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी।।\n\nसुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई।।\n\nसब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई।।\n\nजप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना।।\n\nसब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा।।\n\nएहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई।।\n\nजेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"
},
{
"type": "दोहा/सोरठा",
"content": "पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।\n\nअति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित।।95(क)।।\n\nपाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।\n\nकृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम।।95(ख)।।",
"kaand": "उत्तर काण्ड"